Thursday, August 20, 2009

और ट्रेन छूट गयी..

विशाखापट्टम जाने से पहले मैनें कभी समंदर नहीं देखा था... मैं खुश था कि चलो समंदर देखने के बाद यादों की दो चार सीपियां और थोड़ी सी रेत मेरे भी ज़ेहन में जमा हो जाएगी... हम तीन दोस्त, मैं, अमित और संतोष... तीनों ने विशाखापट्टनम जाने के लिये संघर्ष खूब किया... ट्रेन छोड़ने से लेकर, 750 किमी की सिटी बस की सवारी तक... दर असल हुआ कुछ यूं कि हम तयशुदा वक्त पर सिकंदराबाद रेलवे स्टेशन पहुंच गये... 9 बजकर 45 मिनट पर ट्रेन आने में अभी कुछ वक्त था... हम प्लेटफॉर्म नं. 5 पर पहुंचकर ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे... उस प्लेट फॉर्म पर पहले से एक ट्रेन खड़ी हुई थी... सोचा कि थोड़ी पेट-पूजा कर ली जाय... लिहाज़ा उस वक्त जो चीज़ हमे खाने के लिये मिल सकती थी उसी से भूख मिटाने की सोची... हमने दो प्लेट इडली ली... हालांकि हमें ये पसन्द नहीं थी लेकिन मजबूरी और ज़ोर की भूख ने उस बेस्वाद इडली का ज़ायका भी कई गुना बढ़ा दिया था... हम इडली खाते, प्लेटफॉर्म नं. 5 पर पहले से खड़ी ट्रेन के जाने और उसके बाद हमारी ट्रेन आने का इंतज़ार कर रहे थे... घड़ी-घड़ी (बार-बार) हम घड़ी भी देखते जा रहे थे... रात के 10 बज चुके थे... धीरे से उस ट्रेन ने पटरियों पर रेंगना शुरू किया... हम खुश थे कि अब हमारी ट्रेन आएगी... अचानक मैने देखा कि इसी ट्रेन के अन्तिम दो डिब्बों पर हमारी ट्रेन का नम्बर 0866 लिखा हुआ था... मैं चिल्लाया... अमित, सन्तोष हमने ट्रेन मिस कर दी... दोनों ने सोचा मैं मज़ाक कर रहा हूं... वास्तव में यक़ीन मुझे भी नहीं हो रहा था कि हम तीनों इतने बड़े बेवकूफ़ हो सकते हैं कि इडली खाते-खाते ट्रेन ही छोड़ दें... ख़ैर... 10.15 बजे तक हमें यक़ीन हो चुका था कि हमारी ट्रेन छूट चुकी है... अब करें क्या... यही ख़याल ज़ेहन में आ रहा था... ट्रेन छूट चुकी थी और हम हैदराबाद में ही छूट गये... अगली ट्रेन अगले दिन सुबह सात बजे से पहले नहीं थी. वापस ऑफिस फोन करके अगली ट्रेन की बुकिंग कराने की हिम्मत हममें से किसी में नहीं थी... लोग इस बारे में सुनेंगे तो कितना हंसेंगे... लिहाज़ा हमने बस से ही विशाखापट्टनम जाने का फैसला किया और पहुंच गये इमलीबाग बस स्टेशन... देश के इस सबसे बड़े बस अड्डे पर हमें विशाखापट्टनम के लिये बस ढूंढने में खासा पसीना बहाना पड़ा.. जैसे तैसे हमने बस ढूंढ ही निकाली... लेकिन क़िस्मत ख़राब... वहां पर कोई लग्ज़री बस नहीं थी... आखिर मरता क्या ना करता... हमने सिटी बस की कष्टदायक सवारी करने का फैसला किया और सख्त सीटों पर बिना पीट और शरीर को आराम दिये, विजयवाड़ा होते हुए विशाखापट्टनम के लिये निकल पड़े... विजयवाड़ा पहुंचने पर मेरे पैर में चोट लगी... और अंगूठे नाखून उखड़ गया... खैर खून की परवाह किए बिना हम तीनों विशाखापट्टनम की बस में सवार हुए... आखिरकार पहुंच गये अपनी मंज़िल... समंदर की लहरों में हमने खूब मस्ती की... यहां पर ना तो सफर की मुश्किलों की तकलीफें थीं... और ना ही कोई थकान...
इसी यादगार सफर पर मेरी हमसफर बनीं ये दो लाइनें भी... मुश्किलों को कुछ यूं ही जीतने... और कैसे भी हालातों को खुलकर जीने की कहानी बयां करते हैं...

वक्त को चलने दे अपनी रफ्तार से ऐ दोस्त, रफ्ता-रफ्ता तेरी सूरत भी बदल जाएगी।
मंज़िलें दूर हों कितनीं ही अकिंचन तुझसे, मुश्किलें भी तेरे आगे ही सिर झुकाएंगी ।।

सत्येंद्र यादव "अकिंचन"